मैं जब भीदुनियाँ के अजब दस्तूर कोअंजाम देते हुए कहीं दूर किसीअज़नबी जज़ीरे को अपना समझवहाँ कि ऊँचाइओ पर बैठकिसी की आँखों सेहसीन मंज़र को देखने की सोचती हूँतब बाबा की विवश पनीली आँखेंमेरे सामने घूमने लगती हैंकम उम्र में चढ़ता बुढ़ापाचिन्ताओ की अनगिनत झुर्रियाँजिसके माथे की हर लकीर कहती हैकि वो इक बेटी के पिता हैबेशक उन्हें व्यथित करे या न करेकिन्तु अफ़सोस का बीजमेरे भीतर अवश्य डाल जाती हैं कि मैं इक बेटी हूँऔर फिर मेरी हर आरज़ूगहरे संताप में परिवर्तित हो जाती हैं लोग तो कहते हैंबेटियाँ.. पराया धन होती है अपने भाग्य का लाती हैऔर ले जाती हैंसमाज का यह रवैयाकितना पराया कर देता है हमेंक्या है भाग्य का लेखा ?कौन सा देश ?कैसे लोगो से है वास्ता ?वहाँ कोई अपना समझें यासमझौते का गढ़ बन जाऊँगी मैंये उथल-पुथल तोमेरे मन में चल ही रही थी कि अचानकमाँ के गालो से ढुलकता हुआ आँसूमेरे गालो पर गिर जाता हैऔर वेदना से भीग जाती हूँ मैं सच .....इससे पहले तो कभी नहींआज पहली बार बहुत बुरा लगाअपनी बेटी बनकर जन्म लेने परमेरा गुमान कहीं कन्नी काट गया सोचती हूँ किकाश ! अपने माता-पिता की सेवा का सौभाग्य प्राप्त कर पातीकाश ! मैं उनके बुढ़ापे का सहारा होतीकाश ! कि मैं इक बेटा होती !!!
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