इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तकाज़ा है बहुत
Submitted by dev_amit on Wed, 09/18/2013 - 23:40
इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तकाज़ा है बहुत इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत रात हो दिन हो ग़फ़लत हो कि बेदारी हो उसको देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत तश्नगी के भी मुक़ामात हैं क्या क्या यानी कभी दरिया नहीं काफ़ी, कभी क़तरा है बहुत मेरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह मैं ने पत्थर की तरह ख़ुद को तराशा है बहुत कोई आया है ज़रूर और यहाँ ठहरा भी है घर की दहलीज़ पे ऐ 'अमित ' उजाला है बहुत
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प्रिय अमित जी सुन्दर गजल ...बधाई पोस्ट करते समय FULL HTML का उपयोग करें इनपुट फार्मेट देखें अन्यथा पद्य गद्य .... भ्रमर ५
धन्यवाद प्रिय मित्र आपका
धन्यवाद प्रिय मित्र आपका स्नेह चाहिए