आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है, मुझ में
Submitted by dev_amit on Wed, 09/18/2013 - 23:38
आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है, मुझ में| और फिर मानना पड़ता है के ख़ुदा है मुझ में| अब तो ले-दे के वही शख़्स बचा है मुझ में, मुझ को मुझ से जुदा कर के जो छुपा है मुझ में| मेरा ये हाल उभरती हुई तमन्ना जैसे, वो बड़ी देर से कुछ ढूंढ रहा है मुझ में| जितने मौसम हैं सब जैसे कहीं मिल जायें, इन दिनों कैसे बताऊँ जो फ़ज़ा है मुझ में| आईना ये तो बताता है के मैं क्या हूँ लेकिन, आईना इस पे है ख़मोश के क्या है मुझ में| अब तो बस जान ही देने की है बारी ऐ "नूर", मैं कहाँ तक करूँ साबित के वफ़ा है मुझ में|
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.अद्भुत ..कोशिशें जारी रहें
मैं कहाँ तक करूँ साबित के वफ़ा है मुझ में|...प्रिय अमित जी ...बहुत खूब ...अद्भुत ..कोशिशें जारी रहें भ्रमर ५